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ग़ज़ल
जिस्म के पिंजरे में ले कर घूमिए नन्ही सी जान
चंद साँसों की मिरे प्यारे अदाकारी हैं आप
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
परिंदा जिस्म के पिंजरे में आया तो बहुत ख़ुश था
मगर उस ने सहर से शाम तक पाई उदासी है
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
बहुत दिन मस्लहत की क़ैद में रहते नहीं जज़्बे
मोहब्बत जब सदा देती है पिंजरे टूट जाते हैं
वसीम नादिर
ग़ज़ल
लगता है कि पिंजरे में हूँ दुनिया में नहीं हूँ
दो रोज़ से देखा कोई अख़बार नहीं तो
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
शनासा ख़ौफ़ की तस्वीर है उस की बयाज़ों में
मिरी बेटी हसीं पिंजरे में इक चिड़िया बनाती है
साबिर शाह साबिर
ग़ज़ल
दिल पर खोले उड़ने के लिए उड़ने का मगर इम्कान कहाँ
रोकें पैरों की ज़ंजीरें पिंजरे की चार-दिवारी भी