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ग़ज़ल
न शोख़ी शोख़ है इतनी न पुरकार इतनी पुरकारी
न जाने लोग तेरी सादगी को क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
शोख़-ओ-शादाब-ओ-हसीं सादा-ओ-पुरकार आँखें
मस्त-ओ-सरशार-ओ-जवाँ बे-ख़ुद-ओ-होशियार आँखें
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
नज़र उन की कहीं पुतली कहीं आँखें कहीं उन की
ये गर्दिश दूसरी सूरत की है पुरकार रहने दें
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
फिर कोई ज़ख़्म कि कुछ दिन हमें पुर-कार रखे
इश्क़ को फ़ुर्सत-ए-बे-कार से डर लगता है
तालिब हुसैन तालिब
ग़ज़ल
हुआ काग़ज़ मुसव्वर एक पैग़ाम-ए-ज़बानी से
सुख़न तस्वीर तक पहुँचा हुनर पुरकार तक आया
अख़्तर हुसैन जाफ़री
ग़ज़ल
मुँह-ज़ोर हैं मग़रूर हैं पुर-कार नहीं हैं
हम लोग अभी साहब-ए-किरदार नहीं हैं