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ग़ज़ल
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
बात तब आशिक़-गरी की मैं जहाँ में फ़ाश की
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
मिरी रातों की ख़ुनकी है तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
इतनी भी हमें बंदिश-ए-ग़म कब थी गवारा
पर्दे में तिरी काकुल-ए-पुर-ख़म तो नहीं है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
किस तरफ़ जाए कहाँ जाए बता दो कोई
ज़ुल्फ़-ए-पुर-ख़म का गिरफ़्तार निगाहों का क़तील
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बे-मक़्सद जीना कहते हैं हैवान के जैसा जीने को
इंसाँ के लिए तो ये जीवन यारो पुर-ख़ार बिछौना है
आकिफ़ ग़नी
ग़ज़ल
किसी के अबरू-ए-पुर-ख़म का ध्यान रहता है
हमारा काबा-ए-दिल है सियाह-ख़ाना-ए-इश्क़