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ग़ज़ल
वो इल्तिमास-ए-लज्ज़त-ए-बे-दाद हूँ कि मैं
तेग़-ए-सितम को पुश्त-ए-ख़म-ए-इल्तिजा करूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-तलब मय अता हो रिंदों को
ये मै-कदा है यहाँ रस्म-ए-बेश-ओ-कम क्यों हो
मजीद खाम गानवी
ग़ज़ल
सौदा-ए-इश्क़-ए-ख़ाम तो हर इक बशर में है
मजनूँ सा ज़ब्त-ओ-जोश-ओ-जुनूँ किस के सर में है
आज़म जलालाबादी
ग़ज़ल
इश्क़-ए-सादिक़ जो असीर-ए-तमा-ए-ख़ाम न था
सई-ए-नाकाम के ग़म से मुझे कुछ काम न था
अली मंज़ूर हैदराबादी
ग़ज़ल
हम से मिल के फ़ितरत के पेच-ओ-ख़म को समझोगे
हम जहान-ए-फ़ितरत का इक सुराग़ हैं यारो
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
क्यूँ असीर-ए-गेसू-ए-ख़म-दार-ए-क़ातिल हो गया
हाए क्या बैठे-बिठाए तुझ को ऐ दिल हो गया
अबुल कलाम आज़ाद
ग़ज़ल
जो तिरी महफ़िल से ज़ौक़-ए-ख़ाम ले कर आए हैं
अपने सर वो ख़ुद ही इक इल्ज़ाम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
अफ़्सोस की भी चश्म थी उन से ख़िलाफ़-ए-अक़्ल
बार-ए-इलाक़ा से तो 'अबस पुश्त-ए-ख़म हुआ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
'नज़ीर' पीर हुआ तो भी बार-ए-नाज़-ए-बुताँ
कुछ उस के दोश के कुछ पुश्त-ए-ख़म के साथ रहा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ये सस्ती लज़्ज़तों सस्ती सियासत के पुजारी हैं
हमें अहबाब का सौदा-ए-ख़ाम अच्छा नहीं लगता