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ग़ज़ल
मुझे आप क्यूँ न समझ सके ये ख़ुद अपने दिल ही से पूछिए
मिरी दास्तान-ए-हयात का तो वरक़ वरक़ है खुला हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
मेरी चाहतों को न पूछिए जो मिला तलब से सिवा मिला
मिरी दास्ताँ ही अजीब है मिरा मसअला कोई और है