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ग़ज़ल
पाते हैं सर्व-ए-गुल में तिरी शक्ल क़द्द-ओ-रुख़
फ़ुर्क़त में जी कहीं नहीं लगता सिवाए बाग़
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
करता हूँ जो बार बार बोसा-ए-रुख़ का सवाल
हुस्न के सदक़े से है मुझ को गदाई का इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल में कोई तेग़ न ख़ंजर होता
मिरा साया जो मिरे क़द के बराबर होता
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
मिरे लहू में अब इतना भी रंग क्या होता
तराज़-ए-शौक़ में अक्स-ए-रुख़-ए-निगार भी है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
इनान-ए-हुक्मरानी देखिए किस दिन ख़ुदा लेगा
रहेंगे क़िस्मतों पर हुक्मराँ ये आसमाँ कब तक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
होशियारी से हो 'परवीं' चमन-ए-हुस्न की सैर
दाम और दाना हैं दोनों रुख़-ए-दिलदार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है
ज़ुल्फ़ ओ ज़ंजीर से यक-गूना शग़फ़ क्या कम है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
ग़म-ए-तंहाई मगर रुख़ पे उभरने न दिया