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ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तिरे लबों से है अलबत्ता इक हलावत-ए-ज़ीस्त
नबात-ए-क़ंद-ए-शकर अंग्बीं तो कुछ भी नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
लब-ओ-रुख़्सार के गुल-क़ंद सीं लाज़िम है इलाज
दिल के आज़ार सीं बीमार हूँ किन का उन का