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ग़ज़ल
बड़ा इल्ज़ाम ठहरा है तअल्लुक़ रिश्ता-दारी का
क़राबत की मोहब्बत बद-गुमानी होती जाती है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
क़राबत तो मयस्सर है मगर ये दिल की तन्हाई
मिरी मर्ज़ी से आई है मिरी मर्ज़ी से निकलेगी
ताैफ़ीक़ साग़र
ग़ज़ल
आगे थी हम को क़राबत शब से शब को हम से थी
उन को थी ख़ल्वत से रग़बत हम शबिस्ताँ हो गए
इरफ़ान अहमद मीर
ग़ज़ल
तुम्हें नज़दीक भी रखना मिरे बस में नहीं होता
तुम्हें जब दूर करता हूँ क़राबत टूट जाती है