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ग़ज़ल
रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
रिज़्क़ बर-हक़ है ये ख़िदमत नहीं होगी हम से
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
रौशन चेहरा भीगी ज़ुल्फ़ें दूँ किस को किस पर तरजीह
एक क़सीदा धूप का लिक्खूँ एक ग़ज़ल बरसात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
वो बरहनगी का क़सीदा कहते हुए इधर निकल आया था
मगर उस की आँखों में सत्र-पोश हया न हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
हम क़सीदा-ख़्वाँ नहीं उस हुस्न के लेकिन 'फ़राज़'
इतना कहते हैं रहीन-ए-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा न था
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ऐ क़लम करना मिरे हाथ की लग़्ज़िश को मुआफ़
तुझ से शाहों का क़सीदा नहीं लिख्खा मैं ने