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ग़ज़ल
ये तो कहते हो कि ख़ुद मैं ने कटाई गर्दन
कोई हाथों में हवा के भी तो ख़ंजर देखो
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
दिल की ज़मीं पर बोए थे 'बाक़र' बीज जो दर्द जुदाई के
चलिए अब वो फ़स्ल खड़ी है वक़्त आया है कटाई का
सज्जाद बाक़र रिज़वी
ग़ज़ल
फलदार दरख़्तों की कटाई से मिला सुख
इस साल मिरे सहन में पत्थर नहीं आए
फ़ैज़ान जाफ़री अल-ख़्वारिज़्मी
ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है