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ग़ज़ल
मक़्सद था मिले ग़म से नजात इस लिए ऐ 'चर्ख़'
इक उम्र मिरी वक़्फ़-ए-ख़िराजात हुई है
चरख़ चिन्योटी
ग़ज़ल
ग़म-ओ-'इशरत का मुरक़्क़ा' है ये दुनिया ऐ 'चर्ख़'
कभी काँटों कभी फूलों पे बसर होती है
चरख़ चिन्योटी
ग़ज़ल
क़दम क़दम पे किए 'चर्ख़' ज़िंदगी ने मज़ाक़
समझ में आ न सका क़स्द-ए-ज़िंदगी क्या है
चरख़ चिन्योटी
ग़ज़ल
क्या वज्ह तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम में मज़ा नहीं
ऐ दौर-ए-चर्ख़ आज वो शायद नहीं शरीक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मेरे नालों से लरज़ता था कभी चर्ख़-ए-कुहन
अब तो फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ करने की ताक़त भी नहीं
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
तजल्ली गर तिरी पस्त ओ बुलंद उन को न दिखलाती
फ़लक यूँ चर्ख़ क्यूँ खाता ज़मीं क्यूँ फ़र्श हो जाती
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
पीटना सर अपने मातम में अज़ीज़ो यार का
क़िलआ-ए-कुंज-ए-लहद की फ़त्ह का नक़्क़ारा था