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ग़ज़ल
चराग़ तो हैं मगर इतने धुँदले धुँदले क्यूँ
'किरन' तुम्हारे तो ये नक़्श-ए-पा नहीं होते
कविता किरन
ग़ज़ल
ऐ 'किरन' है जो तू मौजूद तो रौशन है जहाँ
अब्र से कह दो कि बे-वक़्त वो छाया न करे
इंदु मिश्रा किरण
ग़ज़ल
मुँह पर ये गोश्वारा मोती का जल्वा-गर है
जैसे क़िरान-ए-बाहम हो माह ओ मुश्तरी का
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
अब वा'इज़-ओ-ज़ाहिद हैं बहम दस्त-ओ-गरेबाँ
इक जंग-ए-जमल आज मसाजिद में छिड़ी है