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ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
नहीं दो क़ुब्बा-ए-पिस्तान शोख़-ओ-शंग सीने पर
नज़र आते हैं मीना-ए-मय-ए-गुल-रंग सीने पर
सय्यद अाग़ा अली महर
ग़ज़ल
जुब्बा-ओ-क़ुब्बा-ओ-दस्तार है जिन का मज़हब
हम से और उन से मुलाक़ात नहीं है साक़ी
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले