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ग़ज़ल
शब हुई फिर अंजुम-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बहुत मुद्दत से हँसना भूल कर बैठी हुई है
तुम्हें 'रख़्शंदा' शायद गुदगुदी करनी पड़ेगी
रख़्शंदा नवेद
ग़ज़ल
दस्त-ओ-गरेबाँ हाल से हैं हम फ़र्दा रौशन हो
माज़ी में रख़्शंदा रहना हम को नहीं मंज़ूर
आलम ख़ुर्शीद
ग़ज़ल
इस कहानी का है 'रख़्शंदा' यही लुब्ब-ए-लुबाब
पहले इज़्ज़त हो तो फिर बा'द में चाहा जाए
रख़्शंदा नवेद
ग़ज़ल
हमेशा सामने आए मिसाल-ए-सुब्ह-ए-रख़्शंदा
कभी मद्धम उजालों का समाँ हम ने नहीं रक्खा