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ग़ज़ल
जान से उश्शाक़ जाते हैं गुज़र कटते हैं ग़ैर
पुल-सिरात-ए-इम्तिहान-ए-इश्क़ कहलाती है तेग़
बयान मेरठी
ग़ज़ल
'वक़ार-हिल्म' अली वालों से ख़ुदा की क़सम
पुल-सिरात के रस्ते भी राह रखते हैं