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ग़ज़ल
हुआ अगर शौक़ आइने से तो रुख़ रहे रास्ती की जानिब
मिसाल-ए-आरिज़ सफ़ाई रखना ब-रंग-ए-काकुल कजी न करना
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
रास्ती ख़्वार है उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-परवर से
हाँ मगर मंज़िलत-ए-मक्र है और ग़द्र की क़द्र
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मिलते हैं रास्ती सीं जो कोई कज-नज़र मिले
ख़्वाबों में पाक-बाज़ की हुर्मत नहीं रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
फ़र्ज़ की मंज़िल ने मेरी गुमरही भी छीन ली
वर्ना 'अश्क' इस रस्ती-बस्ती राह में क्या क्या न था