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ग़ज़ल
जिस के हर क़तरे से रग रग में मचलता था लहू
फिर वही इक शय पिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
करेगी अपने हाथों आज अपना ख़ून मश्शाता
बहुत रच-रच के तलवों में तिरे मेहंदी लगाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले