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ग़ज़ल
रह-ए-शहादत पे सर के हमराह इक आसेब चल रहा है
हमीं न निकलें यज़ीद-ए-दौरां कि ख़ुद को शब्बीर कर रहे हैं
आक़िब साबिर
ग़ज़ल
क्या बलाग़त आ गई उस के बदन के मत्न में
चंद लफ़्ज़ों का जो कुछ रद्द-ओ-बदल मैं ने किया
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
गर चलें राह-ए-तलब में तोड़ डालूँ अपने पाँव
बस कभी साक़ी के आगे हाथ फैलाता हूँ मैं