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ग़ज़ल
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा
मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
थम ऐ रह-रौ कि शायद फिर कोई मुश्किल मक़ाम आया
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अब कूचा-ए-दिल-बर का रह-रौ रहज़न भी बने तो बात बने
पहरे से अदू टलते ही नहीं और रात बराबर जाती है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ग़ुबार बन के उड़े तेज़-रौ कि उन के लिए
तो क्या ज़रूर कोई रास्ता भी होना था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
क़फ़स में भी वही ख़्वाब-ए-परेशाँ देखता हूँ मैं
कि जैसे बिजलियों की रौ फ़लक से आशियाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
मिरे क़हक़हों की ज़द पर कभी गर्दिशें जहाँ की
मिरे आँसुओं की रौ में कभी तल्ख़ी-ए-ज़माना