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ग़ज़ल
रिफ़अ'त-ए-चर्ख़-ए-बरीं महदूद हो कर रह गई
जब सरों पर धुंद का सफ़्फ़ाक लश्कर जम गया
एहतराम इस्लाम
ग़ज़ल
ख़ाक करती है ब-रंग-ए-चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम रक़्स
हर दो-आलम को तिरा रखता है बे-आराम रक़्स
बयान मेरठी
ग़ज़ल
बा'द मुद्दत जो मैं ऐ चर्ख़-ए-कुहन याद आया
क्या सितम कोई नया मुश्फ़िक़-ए-मन याद आया
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
हौसले क्यों न दिल-ए-चर्ख़-ए-कुहन के निकले
मिस्ल-ए-यूसुफ़ न फिरे जो हैं वतन के निकले
मोहम्मद इब्राहीम आजिज़
ग़ज़ल
हौसले क्यों न दिल-ए-चर्ख़-ए-कुहन के निकले
मिस्ल-ए-यूसुफ़ न फिरे जो हैं वतन के निकले
मोहम्मद इब्राहीम आजिज़
ग़ज़ल
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
औरों का ज़र लुटा मिरा नक़्द-ए-सुख़न लुटा
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
मुझे गर्दिश में पाया दौरा-ए-चर्ख़-ए-बरीं काहे
कि मेरे साथ चक्कर में मिरा काशाना आता है
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
मक़्सद था मिले ग़म से नजात इस लिए ऐ 'चर्ख़'
इक उम्र मिरी वक़्फ़-ए-ख़िराजात हुई है