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ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हाए-री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हिज्र की आग में ऐ री हवाओ दो जलते घर अगर कहीं
तन्हा तन्हा जलते हों तो आग में आग मिला देना
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह-री मेराज-ए-शौक़
देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अल्लाह रे सोज़-ए-आतिश-ए-ग़म बा'द-ए-मर्ग भी
उठते हैं मेरी ख़ाक से शो'ले हवा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
तिरछी निगाहें तंग क़बाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अश्कों को भी ये जुरअत अल्लाह री तेरी क़ुदरत
आँखों तक आते आते फिर दिल में जा ठहरना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अल्लाह अल्लाह री नज़ाकत तिरे रुख़्सारों की
इतने नाज़ुक हैं कि खालों से दबे जाते हैं