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ग़ज़ल
मज़हर-ए-शुजा'अत हूँ लेकिन इस से क्या हासिल
मैं हुजूम-ए-तिफ़्लाँ में रीछ का तमाशा हूँ
रमेश तन्हा
ग़ज़ल
रच गया है मेरी नस नस में मिरी रातों का ज़हर
मेरे सूरज को बुला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
करेगी अपने हाथों आज अपना ख़ून मश्शाता
बहुत रच-रच के तलवों में तिरे मेहंदी लगाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
'ज़ौक़' ज़ेबा है जो हो रीश-ए-सफ़ेद-ए-शैख़ पर
वसमा आब-ए-बंग से मेहंदी मय-ए-गुल-रंग से