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ग़ज़ल
नज़र चेहरे पे डाली है मगर कुछ सहमी सहमी सी
हसीनों का ये रो'ब-ए-हुस्न उन का पासबाँ क्यों हो
जयकृष्ण चौधरी हबीब
ग़ज़ल
हो रहा है ये अयाँ ख़ौफ़-ज़दा चेहरे से
रो'ब ग़ालिब तो मिरा आज भी तुम पर है मियाँ
अलीमुद्दीन अलीम
ग़ज़ल
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई
सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़
ग़ज़ल
हर रो'ब-ए-हुस्न दाब-ए-मोहब्बत मिज़ाज-ए-‘इश्क़
रखता है सर-बसर कोई ख़ूबी कमाल की
बिशन दयाल शाद देहलवी
ग़ज़ल
ग़लत कि मेरी निगाहों को पारसा कहिए
ये रो'ब-ए-हुस्न से उठती नहीं हैं क्या कहिए
अब्दुस्समद ’तपिश’
ग़ज़ल
खींचता तस्वीर क्यूँकर देख कर रोब-ए-जमाल
हाथ काँपा मर गई नानी वहीं बहज़ाद की