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ग़ज़ल
क्या तिरे मय-कश-ए-उल्फ़त का ये कैफ़िय्यत है
दर्द-ए-दिल कर के बयाँ रोने रुलाने का मज़ा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
मंज़ूर मेरे रोने पे हँसना अगर न था
ग़ैरों से हँस के मुझ को रुलाने का क्या सबब
मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी
ग़ज़ल
बहुत हम को रुलाया माज़ी-ओ-इमरोज़ ने सो अब
नशात-ए-गिर्या ऐसा है कि मुस्तक़बिल पे रोते हैं
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
मोहब्बत है अज़िय्यत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है
जवानी और इतनी दुख भरी कैसी क़यामत है