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ग़ज़ल
मेरे लहजे में जो ठहराव नहीं आया 'रोज़'
क्या मिरी तल्ख़ी-ए-हिजरत को नहीं जानते हो
रिज़वाना सईद रोज़
ग़ज़ल
हिज्र में जीने से बेहतर है हलाक-ए-रोज़-ए-वस्ल
ये तरह क्या ख़ूब रास आई है परवाने के तईं
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
क़स्द करता हूँ हम-आग़ोशी का लेकिन रोज़-ए-वस्ल
जी निकल जाता है उस नाज़ुक बदन को देख कर
हस्सामुद्दीन हैदर नामी
ग़ज़ल
दिल ताब ही लाया न टुक ता याद रहता हम-नशीं
अब 'ऐश रोज़-ए-वस्ल का है जी में भूला ख़्वाब सा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुश्किल था देखना ही तिरा तिस पे रोज़-ए-वस्ल
लाई न चश्म ताब-ए-नज़र यक-न-शुद दो-शुद
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
नहीं दिल को फ़िक्र ये बे-सबब गया दिन कहाँ हुई रात कब
मुझे रोज़-ए-वस्ल है अजब अभी सुब्ह थी अभी शाम है
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी
रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो