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ग़ज़ल
अपने में ही किसी की हो रू-ब-रूई मुझ को
हूँ ख़ुद से रू-ब-रू हूँ हिम्मत नहीं है मुझ में
जौन एलिया
ग़ज़ल
न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
तुम्हें देना ही होगा बोसा ख़म-रूई से क्या हासिल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
चलो गुमराहियों की रुई भर लो अपने कानों में
सुना है शैख़-साहब आज कुछ फ़रमाने वाले हैं
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
तू उरूस-ए-शाम-ए-ख़याल भी तो जमाल-ए-रू-ए-सहर भी है
ये ज़रूर है कि ब-ईं हमा मिरा एहतिमाम-ए-नज़र भी है
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
तू उरूस-ए-शाम-ए-ख़याल भी तू जमाल-ए-रू-ए-सहर भी है
ये ज़रूर है कि ब-ईं-हमा मिरा एहतिमाम-ए-नज़र भी है
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
ख़ूब-रूई के लिए ज़िश्ती-ए-ख़ू भी है ज़रूर
सच तो ये है कि कोई तुझ सा तरह-दार नहीं
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
सादा-रूई ने तो खोया दिल ओ दीं से देखें
ख़त के आने में है क़िस्मत का लिखा क्या क्या कुछ
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
सदाएँ सुर्ख़-रूई देती है गंज-ए-शहीदाँ में
लहू का मेंह बरसता है नहाए जिस का जी चाहे