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ग़ज़ल
'जमशेद' मता-ए-हुस्न जहाँ सब अहल-ए-नज़र का हिस्सा है
जो चाहे क़लंदर हो जाए जो चाहे सिकंदर हो जाए
जमशेद मसरूर
ग़ज़ल
जो नंग-ए-चमन कहते हैं तारीख़ तो देखें
हम रूह-ए-चमन ज़ीनत-ए-गुलज़ार रहे हैं