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ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ की रही या ग़म-ए-जानाँ की रही
अल-ग़रज़ छेड़ रही मंज़िल-ए-नाकाम के साथ
मंज़िल लोहाठेरी
ग़ज़ल
संग-ए-मंज़िल इस्तिआरा संग-ए-मर्क़द का न हो
अपने ज़िंदा जिस्म को पत्थर बना कर देखना
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
उस की गलियों में रहे गर्द-ए-सफ़र की सूरत
संग-ए-मंज़िल न बने राह का पत्थर न हुए