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ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
रह-ए-शहादत पे सर के हमराह इक आसेब चल रहा है
हमीं न निकलें यज़ीद-ए-दौरां कि ख़ुद को शब्बीर कर रहे हैं
आक़िब साबिर
ग़ज़ल
वो फूल था जादू-नगरी में जिस फूल की ख़ुश्बू भाई थी
उसे लाना जान गँवाना था और अपनी जान पराई थी
साबिर वसीम
ग़ज़ल
ये अच्छाई में भी 'साबिर' बुराई ढूँड लेती है
ये दुनिया है अलिफ़ पर भी कभी शोशा बनाती है