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ग़ज़ल
था बहुत मुमकिन कि बच जाती ग़म-ए-दुनिया से जान
सच तो ये है हम ने कोशिश भी न की तेरे बग़ैर
मंज़र लखनवी
ग़ज़ल
नहीं है तल्ख़-गोई शेवा-ए-संजीदगाँ लेकिन
मुझे वो गालियाँ देंगे तो क्या चुप साध लूँगा मैं