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ग़ज़ल
दिल-ए-कम-ज़र्फ़ ने हम को कहीं का भी नहीं छोड़ा
रहे थे चार दिन हज़रत हमारे राज़-दारों में
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
लिया जाता न कैसे इम्तिहान-ए-ज़र्फ़ ऐ 'साक़ी'
नज़र हर एक बादा-ख़्वार ने साग़र पे रक्खी थी
अब्दुल हमीद साक़ी
ग़ज़ल
तंग-दिल कोई अगर फ़य्याज़ हो जाए तो डर
ऐ 'ज़फ़र' कम-ज़र्फ़ की दरिया-दिली से ख़ौफ़ खा