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ग़ज़ल
ये तिलिस्म-ए-हुस्न-ए-ख़याल है कि फ़रेब तेरे दयार के
सर-ए-बाम जैसे अभी अभी कोई छुप गया है पुकार के
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साये का पता
मैं हूँ सौदाई मिरा हम-ज़ाद सौदाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
तिरी फ़ुर्क़त में सारे जिस्म को पथरा दिया मैं ने
फ़क़त आँखें बची हैं इन को पथराया नहीं जाता
नवाज़ असीमी
ग़ज़ल
हम भी इस वास्ते बैठे हैं कि हो रहता है
तुझ सही सर्व के साये में निहाल एक न एक