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ग़ज़ल
तिरी उमीदों का साथ देगी इनायत-ए-बर्ग-ओ-बार कब तक
बहार है मेहरबान तुझ पर मगर रहेगी बहार कब तक
गुलज़ार बुख़ारी
ग़ज़ल
मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है
खुला कि इस बार भी चमन पर गिरफ़्त-ए-दस्त-ए-नुमू वही है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
क्यूँ साज़-ओ-बर्ग-ए-हस्ती करता है तू मुहय्या
दुनिया को है अज़ल से ज़ौक़-ए-फ़ना-परस्ती