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ग़ज़ल
लगा जो पीठ में आ कर वो तीर था किस का
मैं दुश्मनों की सफ़ों में न मरने वाला था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
तुम्हारी नज़्र करती हूँ तमाम अश’आर ये मेरे
कि सफ़्हों पर सियाही से तमाशा अब नहीं होगा
रुची दरोलिया
ग़ज़ल
माथे जब सज्दों से उठे तो सफ़ों सफ़ों जो फ़रिश्ते थे
सब इस शहर के थे और हम इन सब के जानने वाले थे
मजीद अमजद
ग़ज़ल
ये देखना है कि दम है कितना ग़नीम लश्कर के बाज़ुओं में
सफ़ों को अपनी सजाए रखना सुरों को अपने उठाए रहना
अतहर शकील
ग़ज़ल
तारीख़ के सफ़्हों पे जो इंसान बड़े हैं
उन में बहुत ऐसे हैं जो लाशों पे खड़े हैं