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ग़ज़ल
हैं 'शाद' ओ 'सफ़ी' शाइर या 'शौक़' ओ 'वफ़ा' 'हसरत'
फिर 'ज़ामिन' ओ 'महशर' हैं 'इक़बाल' भी 'वहशत' भी
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
'सफ़ी' को मुस्कुरा कर देख लो ग़ुस्से से क्या हासिल
उसे तुम ज़हर क्यों देते हो जो मरता है शक्कर से
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
तग़य्युर आब-ए-बर-जा-मांदा का पाता है रंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं
चाँद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालाँ सब जाने पहचाने हैं
इब्न-ए-सफ़ी
ग़ज़ल
'सफ़ी' कुश्ता हूँ ना-पुर्सानियों का अहल-ए-आलम की
ये देखूँ कौन मेरा साहब-ए-मातम निकलता है
सफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
तसव्वुर उस रुख़-ए-साफ़ी का रख मद्द-ए-नज़र नादाँ
लगाए मुँह जो आईने को आईना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हसीन हर एक हो सकता नहीं बे-शक 'सफ़ी' बे-शक
वही होता है जो अल्लाह को मंज़ूर होता है