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ग़ज़ल
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ये हमीं थे जिन के लिबास पर सर-ए-रह सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुबारक सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मैं उदासियाँ न सजा सकूँ कभी जिस्म-ओ-जाँ के मज़ार पर
न दिए जलें मिरी आँख में मुझे इतनी सख़्त सज़ा न दे
बशीर बद्र
ग़ज़ल
ये सजा-सजाया घर साथी मिरी ज़ात नहीं मिरा हाल नहीं
ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया