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ग़ज़ल
लफ़्ज़ की ज़र्ब तो है साइक़ा-ओ-संग से सख़्त
दिल बहुत नर्म हैं ना-गुफ़्ता-ओ-बे-बाक न कह
ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल
भुला दूँ मैं तुम्हें कैसे भुलाना सख़्त मुश्किल है
तुम्हारी याद को दिल से मिटाना सख़्त मुश्किल है
डॉ. जाफ़र अस्करी
ग़ज़ल
नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों
है बहुत अहल-ए-जुनूँ शोर-ए-बहाराँ इन दिनों
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
ज़ब्त की क़ैद-ए-सख़्त ने हम को रिहा नहीं किया
दर्द पे दर्द उठा मगर शोर बपा नहीं किया