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ग़ज़ल
मैं ने सोचा था मिटा दूँ याद-ए-माज़ी के नुक़ूश
नींद ने आँखों में फिर यादों के पैकर रख दिए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
ये बात अलग साक़ी नवाज़े न नवाज़े
हम मय-कदा-ए-इश्क़ के मय-ख़्वार रहे हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
मिरा माज़ी नज़र आया मुझे हाल-ए-हसीं हो कर
जो उन के साथ देखे थे वो मंज़र याद आते हैं
ए. डी. अज़हर
ग़ज़ल
हुस्न के बाब में 'अकबर' की सनद काफ़ी है
हम भी हर इक बुत-ए-कमसिन को परी कहते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
नहीं अच्छा ज़बान-ए-हाल से आह-ओ-बुका टपकें
अभी माज़ी के लब पर ही है कुछ शोर-ए-फ़ुग़ाँ बाक़ी
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
क्या कीजिए रक़म सनद-ए-एहतिशाम-ए-ज़ुल्फ़
है दफ़्तर-ए-जमाल पे तुग़रा-ए-लाम-ए-ज़ुल्फ़
अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी
ग़ज़ल
रखे हैं ज़ख़्म नमक-दान-ए-याद-ए-माज़ी पर
हमारा दर्द 'अयाँ क्यों न हो शदीद के बा'द