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ग़ज़ल
'हश्र' मेरी शे'र-गोई है फ़क़त फ़रियाद-ए-शौक़
अपना ग़म दिल की ज़बाँ में दिल को समझाता हूँ मैं
आग़ा हश्र काश्मीरी
ग़ज़ल
मैं हर गुनाह की हक़ीक़त बता तो दूँ सर-ए-हश्र
मगर उन्हें जो हर इल्ज़ाम से बचाना है
कैफ़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
निगाह-ए-आस से देखे है सब तरफ़ सर-ए-हश्र
किसी के पलड़े में 'गुलफ़ाम' नेकियाँ कम हैं
मुहिउद्दीन गुल्फ़ाम
ग़ज़ल
'वहशत' रुकें न हाथ सर-ए-हश्र देखना
उस फ़ित्ना-ख़ू का गोशा-ए-दामाँ ही क्यूँ न हो