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ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ कब की आतिश-ए-अय्याम से कुम्हला गई
ज़ुल्फ़ का साया नहीं ढलता सर-ए-मू आज भी
ख़ुर्शीद रिज़वी
ग़ज़ल
फँसने वाला था फँसा आ के तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल
ब-ख़ुदा इस में नहीं जुर्म सर-ए-मू अपना
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
क़ातिल तो उस का हर सर-ए-मू बाल-पन से था
आराइश उस की ज़ुल्फ़ को शाने ने क्या किया
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
ज़ुलमात-ओ-अदम में न रहा फ़र्क़ सर-ए-मू
वो ज़ुल्फ़-ए-दोता छुटते ही पहोंचे है कमर तक
तनवीर देहलवी
ग़ज़ल
हो परेशानी सर-ए-मू भी न ज़ुल्फ़-ए-यार को
इस लिए मेरा दिल-ए-सद-चाक शाना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
सर-ए-मू बे-रुख़ी से भी न मेरे दिल को तुम छेड़ो
बड़ा नाज़ुक रबाब-ए-दिल का हर इक तार होता है
इन्द्र जीत निर्दोश
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
तू भी हरे दरीचे वाली आ जा बर-सर-ए-बाम है चाँद
हर कोई जग में ख़ुद सा ढूँडे तुझ बिन बसे आराम है चाँद