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ग़ज़ल
शादियाँ दुश्वार-तर करने लगी रस्म-ए-जहेज़
लब पे आसानी से आता ही नहीं दुख़्तर का नाम
बुलबुल काश्मीरी
ग़ज़ल
हैं शहर भर में शादियाँ हर एक शख़्स शादमाँ
किसी के सामने हम अपने दिल के घाव क्या करें
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
शादियाँ अपनी किया करते हैं जो ले के तलाक़
उन को सब लोग गदा इब्न-ए-गदा कहते हैं
हाशिम अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
गुल-ए-पज़मुर्दा पर आख़िर रहेंगी तितलियाँ कब तक
रचाएँगे जनाब-ए-शैख़ आख़िर शादियाँ कब तक
रऊफ़ रहीम
ग़ज़ल
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
मिरी आरज़ू की दुनिया दिल-ए-ना-तवाँ की हसरत
जिसे खो के शादमाँ थे उसे आज पा के रोए