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ग़ज़ल
उड़ रहा है आंधियों में बर्ग-ए-शाख़-ए-सब्ज़ भी
किस ने मेरे दिल के मौसम को हरा होने दिया
रौनक़ शहरी
ग़ज़ल
लपके थे शाख़-ए-सब्ज़ पे सौ सौ ख़िज़ाँ के रंग
सुनते हैं नौ-बहार का नुक़्ता हरा न था
ग़ुलाम मुस्तफ़ा दाइम
ग़ज़ल
बाग़-ए-वतन की शाख़-ए-सब्ज़ ज़र्द न हो कभी अगर
साज़िश-ए-हुक्मराँ से ग़ाफ़िल न रहे अवाम भी
ज़िशान इलाही
ग़ज़ल
काट कर दस्त-ए-दुआ को मेरे ख़ुश हो ले मगर
तू कहाँ आख़िर ये शाख़-ए-बे-समर ले जाएगा