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ग़ज़ल
वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई
वही दास्तान-ए-वफ़ा मिरी मरे होंट किस लिए सी गई
क़ैसर ख़ालिद
ग़ज़ल
कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते
कटी उम्र अपनी क़फ़स क़फ़स तिरी ख़ुशबुओं को पुकारते
हसन रिज़वी
ग़ज़ल
शब-ए-ख़ल्वत वही हुज्जत वही तकरार रही
वही क़िस्सा वही ग़ुस्सा वही इंकार रहा
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
ग़ज़ल
बख़्त बरगश्ता वो नाराज़ ज़माना दुश्मन
कोई मेरा है न ऐ 'हिज्र' किसी का मैं हूँ