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ग़ज़ल
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
अतहर नफ़ीस
ग़ज़ल
हवाएँ जिन की अंधी खिड़कियों पर सर पटकती हैं
मैं उन कमरों में फिर शमएँ जला कर देख लेता हूँ
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
फिर वो परवाने जिन्हें इज़्न-ए-शहादत न मिला
फिर वो शमएँ कि जिन्हें रात न होने पाई