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ग़ज़ल
बशर रोज़-ए-अज़ल से शेफ़्ता है शान-ओ-शौकत का
अनासिर के मुरक़्क़े में भरा है नक़्श दौलत का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
शान-ए-हैरत है कि जिस को संग कह देते हैं लोग
फिर वही दिल टूटने पर आइना कहलाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
'शान' अब हम को तो अक्सर शब-ए-तन्हाई में
नींद आती नहीं और ख़्वाब नज़र आते हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
'शान' बे-सम्त न कर दे तुम्हें सहरा-ए-हयात
ज़ेहन में उन के नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा रहने दो
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
बे-अमल लोगों से जब पूछो तो कहते हैं की 'शान'
हम अज़ल से क़िस्मत-ए-नाकाम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
क़सीदा क्या लिखूँ 'सागर' तुम्हारी शान-ओ-शौकत का
यहाँ तो बादशाहत भी कटोरी थाम लेती है
ताैफ़ीक़ साग़र
ग़ज़ल
झूटी शान-ओ-शौकत पर मत ग़ुरूर कर नादाँ
दौलतों का ये नश्शा देर तक नहीं रहता