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ग़ज़ल
क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फ़ों के तार से
बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक शाना क्या
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
किसी की ज़ुल्फ़ बिखरे और बिखर कर दोश पर आए
दिल-ए-सद-चाक उलझे और उलझ कर शाना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
किस की नुमूद के लिए शाम ओ सहर हैं गर्म-ए-सैर
शाना-ए-रोज़गार पर बार-ए-गिराँ है तू कि मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वो तप-ए-इश्क़-ए-तमन्ना है कि फिर सूरत-ए-शम्अ'
शो'ला ता-नब्ज़-ए-जिगर रेशा-दवानी माँगे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पंजा है मिरा पंजा-ए-ख़ुर्शीद मैं हर सुब्ह
मैं शाना-सिफ़त साया-ए-रू ज़ुल्फ़-ए-बुताँ हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
समझते हैं मिरे दिल की वो क्या ना-फ़हम ओ नादाँ हैं
हुज़ूर-ए-शम'अ बे-मतलब नहीं परवाना आता है
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
बस-कि हर-यक-मू-ए-ज़ुल्फ़-अफ़्शाँ से है तार-ए-शुआअ'
पंजा-ए-ख़ुर्शीद को समझे हैं दस्त-ए-शाना हम