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ग़ज़ल
आख़िर शब-ए-फ़िराक़ के तारों को क्या करूँ
तेरे सिवा हसीन नज़ारों को क्या करूँ
भगवान खिलनानी साक़ी
ग़ज़ल
शब-ए-फ़िराक़ का धोका कभी सहर का फ़रेब
कमाल-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा है या नज़र का फ़रेब