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ग़ज़ल
क्यों बुलाते हो उन्हें छोड़ो ये ज़िद ऐ 'शब्बीर'
तुम से बन जाए कोई बात ये ना-मुम्किन है
शब्बर जीलानी क़मरी
ग़ज़ल
गरचे हों 'बेदार' ग़र्क़-ए-मासियत सर-ता-ब-पा
पुर-उमीद-ए-मग़फ़िरत है शब्बर-ओ-शब्बीर से
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
गरेबान-ए-सहर की धज्जियाँ उड़ जाएँगी 'शब्बर'
अगर मेरे जुनूँ की आसमाँ तक बात जा पहुँची
शब्बर जीलानी क़मरी
ग़ज़ल
जो दिल देता है 'शब्बर' आईना-रुख़ हुस्न वालों को
समझ लो ज़िंदगी भर उस की हैरानी नहीं जाती
शब्बर जीलानी क़मरी
ग़ज़ल
मिले क्यूँकर सुकूँ जब तक ये तन्हाई नहीं जाती
वो उलझन है तबीअत में कि सुलझाई नहीं जाती