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ग़ज़ल
बहुत शफ़्फ़ाफ़ थे जब तक कि मसरूफ़-ए-तमन्ना थे
मगर इस कार-ए-दुनिया में बड़े धब्बे लगे हम को
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
कोयलें कूकीं बहुत दीवार-ए-गुलशन की तरफ़
चाँद दमका हौज़ के शफ़्फ़ाफ़ पानी में बहुत
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
वो मरमर की तरह शफ़्फ़ाफ़ और हँसते हुए आ'ज़ा
हयात-ए-जाविदाँ के साज़-ओ-सामाँ याद आते हैं