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ग़ज़ल
तू मुक़ीम सुब्ह-ए-अज़ल से है मिरी शाह-रग के क़रीं सही
मगर आ सका न मुझे नज़र मिरे दिल में लाख मकीं सही
मुनीर वाहिदी
ग़ज़ल
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी